सरोकार

नई इबारत का वक्त

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हाल के
वर्षों में पहाड़ों में रिवर्स माइग्रेशन एक उम्मीद बनकर उभरा है। प्रवासी युवाओं का
वापस पहाड़ों की तरफ लौटना और यहां की विपरीत स्थितियों के बीच ही रास्ता तलाशने की
कोशिशें निश्चित ही भविष्य के प्रति आशान्वित करती हैं, तो दूसरी तरफ पहाड़ों में ही
रहते हुए कई लोगों ने अपने ही परिश्रम से अनेकों संभावनाओं को सामने रखा है। यदि उनकी
इन्हीं कोशिशों को बल मिला और युवाओं ने प्रेरणा ली, तो पलायन से अभिशप्त उत्तराखंड
के पर्वतीय हिस्सों में आने वाला वक्त एक नई ही इबारत लिखेगा।

                दरअसल, आजादी के बाद ही उत्तरप्रदेश
का इस हिस्सा रहे उत्तराखंड के पर्वतीय भूभाग को भाषा और सांस्कृतिक भिन्नता के साथ
अलग भौगोलिक कारणों से पृथक राज्य के रूप में स्थापित करने की मांग शुरू हो हुई थी।
कुछ समय बाद रोजगार की कमी के चलते यहां से शुरू हुए पलायन ने इस मांग को और भी गाढ़ा
किया। नतीजा, दशकों पुरानी मांग पर सन् 1994 में स्वतःस्फूर्त पृथक राज्य आंदोलन का
संघर्ष निर्णायक साबित हुआ। नौ नवंबर 2000 को अलग राज्य के रूप में पर्वतीय जनमानस
का एक सपना पूरा हुआ।

मगर, उनकी
सोच के विपरीत तकलीफें कम होने की बजाए और भी बढ़ीं। जिस पलायन से पार पाने की उम्मीदें
थीं, वह राज्य निर्माण के बाद और भी अधिक तेज हुई। उनके सपने नए राज्य में अवसरवादी
राजनीति की भेंट चढ़ गए। पहाड़ी घरों में पिछले 17 सालों के अंतराल में सबसे अधिक ताले
लटके। अधिकांश पलायन शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के साथ बुनियादी सुविधाओं की कमी के
चलते सामने आया।

अब, देशभर
से सुख सुविधाओं और अपनी महंगी नौकरियों को छोड़कर कुछ युवाओं ने वापसी का रुख किया
और यहां मौजूदा स्थितियों में नई राहें खोजी हैं, तो जरूरत है कि सरकारें भी उनके रास्तों
को समझे। नीतियों के निर्धारण में उनके अनुभवों और उनके सुझावों को शामिल करे। जो कि
खुद राजनीतिक दलों के लिए मुनाफे का ही सौदा होगा।
आलेख-
धनेश कोठारी

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