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‘काफल’ नहीं खाया तो क्या खाया?

‘काफल’ (वैज्ञानिक नाम- मिरिका एस्कुलेंटा – myrica esculat) एक लोकप्रिय पहाड़ी फल है। इस फल में अनेकों पौस्टिक आहार छिपे होते है। खनिज लवणों से भरपूर यह फल मानव जीवन से जुड़ा हुआ है। काफल दुनियां का अकेला फल है जिस पर 9 महीने के फूल (बौर) आने के बाद फल लगते है। उत्तरी भारत के पर्वतीय क्षेत्रों (उत्तराखंड, हिमाचल) और नेपाल के हिमालयी तलहटी क्षेत्र में पाया जाने वाला एक वृक्ष है। जो कि सदाबहार होता है, काफल का फल चैत्र
माह में लगता है।

काफल पर फूल जेठ माह में आ जाते हैं। काफल के पेड़ पर फल खत्म होने के 1 महीने बाद फूल आ जाते हैं। इसके पेड़ काफी बड़े होते हैं, ये पेड़ ठण्डी जगहों में होते हैं। काफल के पेड़ मानव आबादी के इर्दगिर्द होते है। इसका छोटा गुठली युक्त बेरी जैसा फल गुच्छों में आता है। जब यह कच्चा होता है तो हरा दिखता है और पकने के बाद लाल हो जाता है। इसका खट्टा-मीठा स्वाद बहुत मन को भाने वाला और पेट की समस्याओं में बहुत लाभकारी होता है। यह पेड़ अनेक प्राकृतिक औषधीय गुणों से भरपूर है।

गर्मियों में लगने वाले ये फल पहाड़ी इलाकों में विशेष रूप से लोकप्रिय है। पहाड़ां से काफल का अस्तित्व जिस दिन खत्म हो गया उसी दिन पहाड़ों में मानव जीवन भी खत्म हो जाएगा। जर्मनी, फ्रांस व अमरीका में काफल पर शोध किया गया तो पता चला कि सब से बेहतरीन रंग काफल के फल, पत्तों व छाल से बनते हैं। काफल का रंग आसानी से नहीं छूटता है।

काफल की छाल से कब्ज, नकसीर, वाइरल फीवर जैसी बीमारियां ठीक होती है। काफल के तनों पर जमी बरसाती शैवाल एक प्रकार का मसाला है जिस का नाम कल्पासी भी है। यह शैवाल आंतों के रोगों में भी दवाई बनाने के काम आता है। विशेषकर उत्तराखंड की अगर हम बात करें, जिसे देवभूमि कहा जाता है, यहां पर 500 से भी अधिक प्राकृतिक वनस्पतियों, औषधियों का भण्डार है।

जब भी आप काफल खाएं या काफल तोड़ें पेड़ की टहनियां न तोड़ें…, जंगलों में आग न लगाएं। कहीं आग लग रही हो तो तुरंत बुझाने की कोशिश करें। वन विभाग व पुलिस को सूचित करें। वनों में आग लगाकर किसी का भला नही होता है। प्राकृतिक संपदा जलकर राख हो जाती है। जलस्रोत सुख जाते है। इससे काफल का अस्तित्व भी खतरे में पहुंच जाएगा। रसीले काफल खाने है तो जंगलों को बचाना होगा।

देवेश आदमी

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